मत की महिमा
मेरी तरह आपने भी मत
शब्द को सुना और इस्तेमाल किया होगा। फायदा भी उठाया होगा। आपने अपने किसी मित्र
या कुटुम्बी को किसी काम को करने से रोकने के लिए कहा होगा-ऐसा मत करो। आपके इस निर्देश
पर उसने काम करना रोक दिया होगा। लेकिन यदि आप किसी को कहें कि मत दो। इससे वह
क्या अर्थ निकालेगा? सीधी सी बात है वह जो देने वाला होगा वह आपको नहीं देगा। आपने
कहा है –मत दो। किंतु इस ‘मत’ शब्द का एक बड़ा अर्थ न देना नहीं बल्कि अपनी सम्पूर्ण
ताकत दे देना है। क्या आपने इस पर कभी विचार किया है?
आप कल्पना कीजिये आप
राजनीति के क्षेत्र में है। चुनाव का समय चल रहा है। आप क्षेत्र भ्रमण में हैं। आप
लोगों से क्या कहेंगे? यही न कि मुझे ‘मत’ दीजिये। और आप मिलने की उम्मीद करते
हैं। है न चमत्कार! अब तक आप समझ गये होंगे यहाँ किस मत की चर्चा की जा रही है। इस
मत का चमत्कार हिन्दी विज्ञानियों ने किया या राजनीति
वालों ने, यह तो नहीं पता किन्तु इस शब्द के चमत्कार के कारण हिन्दी
व्याकरणाचार्यों का मेरे मन में पहले से कहीं अधिक आदर हो गया है।
आजकल राजनीति में मत
के पीछे जोर का खेल चल रहा है। जिसने इसे समझ लिया उसका जीवन संवर गया। अब राजनीति
वाले आपसे मत लेते ही नहीं हैं अपना मत देते भी हैं। एक बार आपने उन्हें मत देकर
उनकी सरकार बनवा दी इतने से वे खुश नहीं होते। वे चाहते हैं कि आप भी
उनका मत लें। मतलब, (इसमें भी मत है) सरकार जो कहे या करे आप उसे स्वीकार करें। यह बात अलग है कि
सरकार बनाने में आपके भी एक मत का योगदान है। लेकिन राजनीति में मत के मायने समय-समय
पर अलग हो जाते हैं।
जनता अपने मत को लेकर
ज्यादा न उचके तो ही अच्छा है। जनता के मत से सरकार बन जरूर सकती है, किन्तु वह
चलेगी किसके मत से यह सदैव परदे के पीछे रहता है। संसद ने जनता के मत का आदर करने
के लिए दल बदल विरोधी कानून बनाया है किन्तु आपके मत से बने मत वाले इसका भी तोड़
निकाल ही लेते हैं। ऐसे लोगों के लिए जनता के मत से अधिक महत्वपूर्ण अविश्वास मत
हो जाता है। हास्यापद है कि लाखों मत के अंतर से विजयी होने वाले जन प्रतिनिधि को
जनता उससे भी अधिक मतों के अंतर से वापस नहीं बुला सकती किन्तु विधायक जब चाहे उनके
मतों का निरादर करके इस्तीफा दे सकता है। पता नहीं यह कौनसा जनमत है कि वह जब चाहे
जनता के अपार मत को ठुकरा दे। यह बात अलग है कि उसका मत मंत्री बनने का है तो वह
विधायक पद से इस्तीफ़ा देकर मंत्री बन सकता है।
मत शब्द को एक बार उलट
कर भी देख लीजिये। मत का उल्टा तम होता है। जिसका अर्थ अन्धकार है। 15-20 साल
सरकार में रही पार्टी के प्रति जब जनता का मत उल्ट जाता है तब उसकी जो छटपटाहट
आपने देखी होगी उससे आप अंदाजा लगा सकते
हैं कि मत के उलटने से कितना अँधेरा छा जाता होगा। वहीं अपने ही विधायकों के मत
पलट जाने से सत्ताधारी पार्टी ने मत को न पलटने देने के लिए जो एड़ी-छोटी का जोर
लगाया आप उससे भी मत के उल्ट जाने का अँधेरा समझ सकते हैं। हालंकि पहले वाले की तुलना
में मत का उलटना ज्यादा कष्टकारी रहा होगा क्योंकि जिसने 15 वर्षों के लम्बे इन्तजार के
बाद मत पाकर मत खो दिया उसे ऐसा महसूस हुआ होगा मानों भरी पंगत में उसे अचार खिलाकर ही उठ जाने को कह दिया गया है। किन्तु
कर भी क्या सकते हैं यह तो मत की महिमा है।
आपने मतवाला शब्द भी सुना होगा। मत शब्द का अर्थ इच्छा
होती है। जब इसके पीछे ‘वाला शब्द जुड़ जाता है तब उसका स्वामी संसार का ऐसा शक्तिशाली,
सामर्थ्यवान बन जाता है जिसके अहं में उसके विवेक का लोप हो जाता है। उसे कुछ दिखाई नहीं
पड़ता। उसे कुछ सूझता नहीं है। इस शब्द के सामने किसी भी ‘वाला’ वाले शब्द में इतने
ताकत नहीं है। दूधवाला, दवाईवाला, फलवाला, अखबारवाला, जलेबी वाला, मिठाई वाला न जाने
कितने ऐसे शब्द हैं जिसमें ‘वाला’ लगने से वह उसका स्वामी बन जाता है किन्तु जैसी
ताकत ‘मतवाला’ शब्द में है वैसी किसी अन्य में नहीं। शायद इसी शब्द को ध्यान में रखकर यह
बात कही गयी होगी, “सबै सहायक सबल के, कोऊ न निबल सहाय” मत शब्द अपने आप में ताकतवर
है इसीलिये ‘वाला’ शब्द उसमें जुडकर उसे मतवाला बना देता है। यह अलग बात है कि भारत
का वास्तविक मत वाला आज तक इस ताकत को नहीं समझ पाया किन्तु जिसे मत वाले ने मत
दिया वह अवश्य इसके मद में मतवाला हो गया।
पहले के जमाने में
एकमत का बहुत मूल्य था परंतु यह प्रकृति प्रदत्त है कि जितने अधिक लोग होंगे उतने
अधिक मत होंगे और ऐसे में एकमत होना संभव नहीं होगा। तो राजनीति के मनीषियों ने
बहुमत के सिद्धांत को अपनाया। बहुमत के सिद्धांत का अर्थ है कि सभी के मतों का आदर
है किन्तु जब किसी विषय में एकमत न हों तो निर्णय बहुमत के आधार पर कर लिए जाएँ।
इसमें अल्पमत का निर्णय लागू नहीं हो पाता किन्तु उसके मत को सुनने का अवसर अवश्य मिलता है। यही कारण
है कि विधायिका में विपक्ष के नेता को भी वही तरजीह दी जाती है जो बहुमत के नेता
को।
खैर, बहुत कुछ बदल रहा है। अब मत बनाने से ज्यादा मत को पलटने की कोशिश अधिक दिखाई पड़ती है। ऐसे में अब बहुमत वाला बहुमत से संतुष्ट नहीं है उसे तो सिर्फ ‘एकमत’ लोग चाहिए भले ही उसके लिए अल्पमत के मतों का अनादर ही क्यों न करना पड़े। सोशल मीडिया प्लेटफार्मों में भी यह देखने को मिलता है। यहाँ बहुमत को एकमत बनाने की कोशिश में अल्पमत वालों को इस तरह की रबड़ी खिलाई जाती है कि वह प्लेटफोर्म छोडने में ही भलाई समझता है। फिर जैसे एकमत के आकांक्षियों का एकछत्र राज्य कायम हो जाता है। मतों का यह खेल कौनसी नई परिस्थितियों को जन्म देगा इसकी अभी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
खैर, बहुत कुछ बदल रहा है। अब मत बनाने से ज्यादा मत को पलटने की कोशिश अधिक दिखाई पड़ती है। ऐसे में अब बहुमत वाला बहुमत से संतुष्ट नहीं है उसे तो सिर्फ ‘एकमत’ लोग चाहिए भले ही उसके लिए अल्पमत के मतों का अनादर ही क्यों न करना पड़े। सोशल मीडिया प्लेटफार्मों में भी यह देखने को मिलता है। यहाँ बहुमत को एकमत बनाने की कोशिश में अल्पमत वालों को इस तरह की रबड़ी खिलाई जाती है कि वह प्लेटफोर्म छोडने में ही भलाई समझता है। फिर जैसे एकमत के आकांक्षियों का एकछत्र राज्य कायम हो जाता है। मतों का यह खेल कौनसी नई परिस्थितियों को जन्म देगा इसकी अभी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
मत पलटने का चमत्कार
देखिये। जनता सोती किसी और के शासन में है
और जगती किसी और के शासन में है। मैं सोचता हूँ जनता ने तब कैसी दिव्यता की अनुभूति
की होगी? जनता समझ नहीं पायी होगी कि
वह किसी दैवीय शक्ति के कारण किसी अन्य शासक के राज्य में पहुँच गयी या कि उसके
राज्य में रातों रात किसी अन्य शासक का अवतार हो गया। यदि ऐसे राज्य में कोई
वैद्य रहा होगा तो उसे अपने आपको ‘सुषेन वैद्य’ वाली अनुभूति आयी होगी क्योंकि
सुषेन सोया तो रावण के राज्य में था किन्तु जब उसने आँख खोली तब वह राम के अधीन था।
इससे लोकशाही में भरोसा रखने वाली जनता एक बात तो समझ गयी होगी कि
सरकार बनाने के लिए जनमत देना उसके वश की
बात है किन्तु सरकार किसकी बनेगी वह केवल विश्वास और अविश्वासमत से ही साबित होगा।
राजनीति के पुरोधा वह बात नहीं समझ पाए जो बात हमारे कवियों ने पहले ही कह दी थी- “जहाँ सुमति तहाँ सम्पति नाना; जहाँ कुमति तहाँ बिपति निदाना “ मत यद्यपि बलशाली है परन्तु :सु” और “कु” के नक्षत्रयोग से
अप्रभावी कतई नहीं है। जिसके घर परिवार में सुमति है वही परिवार अधिक उन्नति कर सकता है, कुमति के मार्ग में गया
व्यक्ति, परिवार और राष्ट्र कल्याण के मार्ग पर कभी नहीं जा सकता। यदि सुमति होगी तो
सोने की लंका बचेगी और यदि कुमति होगी तो कोई भी विभीषण सोने की लंका में आग लगाने
के लिए शत्रु का साथ दे देगा। किन्तु विडम्बना ही है कि “सु” और ‘कु” राशियों का
मत पर क्या प्रभाव पड़ता है इसे न तो राजनीति के लोग समझ पाए न हम।
आशय यही है कि आपका
मत ताकतवर है, परन्तु मतवाला होने पर वह शैतानी रूप धारण करके आत्मघाती भी हो सकता
है और सुमत हो तो वह समुन्नत मार्ग पर भी ले जा सकता है। परन्तु हमारे इस मत से आप सहमत हों, इस मत पर अधिकार तो केवल और केवल आपका है।
व्यंग्य आलेख:सुरेन्द्र कुमार पटेल
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