तपन दोपहरी का, निज तन में छाया है।
भीषण उष्णता लेकर धरा में आया है॥
धधकती है धरती, व्याकुल मन और काया है।
जीव- जंतुओं पर फैला, दुख का साया है॥
निश दिन झुलस रहा है, तुच्छ कीट पतंगा।
तनिक दृष्टिगोचर हो रहा है, द्रुम हरित रंगा॥
मलिन बदन कुम्हला रहा है, मन में है तंगा।
व्यथित वेदना क्या कहूं? तन में नहीं है चंगा॥
मन में सोच रहा हूं, मिल जाता तरु की छांव।
विश्राम हेतु रुक जाता, स्वा झुलसी पांव॥
खुश होता तन और मन मिटता तपन की घाव।
विचलित नहीं होते हैं, दुख में निज है स्वाभाव॥
भानु की ओज किरण से, व्यथित है शरीर।
प्रकृति का कैसा चक्र, पिपासा को न मिले नीर॥
तन करुण क्रंदन हो रहा है, मन में नहीं है धीर।
तपन दोपहरी की कहर से, बढ़ रहा है पीर॥
रवि की लुढकती पहर में, तनिक प्राप्त शीतलता।
प्रफुल्लित हो जाता है, मन जब सूरज पुंज ढलता॥
यदि हर पर मिलता सुकून मन में, मुझे नहीं खलता।
यह प्राकृतिक का नियम, निज क्रम में ही चलता॥
कभी धूप कभी छाया ,जीवन की यही रीत।
ना हो दुस्साहस मन में, न हो कभी भीत॥
हर पल हो साहस मन में, जग की यह नीत।
यथार्थ की धारा में ,सबसे
हिय में रखिए प्रीत॥
स्वरचित कविता 🖊️ मनोज कुमार चंद्रवंशी (प्राथमिक शिक्षक) संकुल खाटी विकासखंड पुष्पराजगढ़ जिला अनूपपुर मध्य प्रदेश
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