जबसे दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम सामने आए हैं तब से मुफ्तखोरी जैसे विषय पर खूब चर्चा हो रही है. लग तो ऐसा रहा है कि दिल्ली की सरकार ने सभी को निकम्मा बना दिया है और अब दिल्ली की जनता को कोई काम ही नहीं करना पड़ेगा. तभी तो जी न्यूज़ के सुधीर चौधरी यह कहते भी नहीं चूकते कि दिल्ली की जनता आलसी है. आइए इसकी पड़ताल करते हैं लोग मुफ्तखोरी पर चटखारे लेकर बात क्यों कर रहे हैं!
यदि गौर करें तो पाएंगे कि दिल्ली की हालिया सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में ध्यान दिया है. जिसकी चर्चा सभी प्लेटफार्मों पर होती है. ऐसा नहीं है कि दिल्ली की सरकार ने प्राइवेट स्कूलों को बंद करवा दिया है. हाँ उसने प्राइवेट स्कूलों द्वारा उगाही जा रही मनमानी फीस पर नकेल कसने की कोशिश जरूर की है और सरकारी स्कूलों को बेहतर स्थिति में लाने कि कोशिश की है. इस मुद्दे पर आप स्वयं को रखकर देखिये. आप क्या चाहते हैं? और इस मुद्दे पर आप किन बिन्दुओं पर असहमत हैं. क्या निजी विद्यालयों द्वारा ली जा रही मनमानी फीस पर अंकुश लगाने के आप विरोधी हैं या सरकारी स्कूलों की स्थिति को बेहतर करने के विरोध में हैं आप?
इसी प्रकार मोहल्ला क्लीनिक उपलब्ध कराना ठीक है या नहीं ? आप जानते ही हैं कि निजी चिकित्सालय लाभ के उद्देश्य से खोले जाते हैं. जहां जांच के नाम पर ही लोगों से बहुत सारे पैसे ऐंठ लिए जाते हैं. ऐसी स्थिति में यदि दिल्ली की सरकार ने मोहल्ला क्लिनिक उपलब्ध करवाया है तो इसे मुफ्तखोरी की संज्ञा नहीं दी जा सकती.
अब आते हैं बिजली और पानी पर. जैसा कि आप जानते ही होंगे यह छूट असीमित नहीं है. बिजली की कुछ सीमा तक खर्च पर और इसी तरह पानी की कुछ सीमा तक खर्च पर दिल्ली सरकार द्वारा रियायत दी गयी है. जाहिर है इस सीमा तक बिलकुल आम आदमी आता है. जिसे राज्य द्वारा कुछ सुविधाओं का उपभोग करने का हक़ है. वह भी जब बाजार में वस्तुएं खरीदता है तो उस पर टैक्स देता है और वह वे कार्य करता है जो कठोर परिश्रम के काम होते हैं और जिनका पारिश्रमिक बहुत कम होता है.
अब आते हैं महिलाओं को बस किराये में दी जा रही छूट पर! महिलाओं की आबादी और उनके सार्वजनिक जीवन में भागीदारी का अनुपात देखेंगे तो पता लगेगा कि आजादी के इतने दिनों बाद भी उनकी भागीदारी का प्रतिशत बहुत कम है. ऐसे में वह घरों से बाहर निकल कर शिक्षा और रोजगार प्राप्त कर सकें इसके लिए किसी भी सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयासों की सराहना ही होनी चाहिये. यदि दिल्ली की सरकार ने बसों में सुरक्षा के प्रबंध किये और बस किराये में महिलाओं को राहत दी तो अन्य सरकारों को भी इसका अनुकरण करना चाहिए.
इसका अलावा उसने और क्या फ्री किये, मुझे नहीं मालुम.
अब आते हैं इस बात पर कि दिल्ली सरकार द्वारा दी जा रही सुविधाओं पर इतना हो-हल्ला क्यों हो रहा है? इसका उत्तर यह है कि हमारी राजनीति में जिन आधारों पर चुनाव होते रहे हैं और सरकार बनती और बिगडती रही हैं उससे यह अलग है. यह एक नया पैटर्न है. साम्प्रदायिक और राजनीति आधार पर चुनाव जीते जाते तो किसी को कोई आश्चर्य नहीं होता. इसकी कोशिश भी हुयी किन्तु वह पुराना पैटर्न दिल्ली में कामयाब नहीं हुआ. जब किसी नेता ने यह कहा कि बटन इतने जोर से दबाना कि करेंट ........... में लगे तो यह सांप्रदायिक आधार पर वोट मांगने का ब्रह्मास्त्र था जिसका भी उपयोग अंततः कर ही लिया गया. यह कहना भी ठीक नहीं है कि यह ब्रह्मास्त्र फेल हो गया. इसी ब्रहमास्त्र के कारण नतीजे आए और जो मत प्रतिशत के रूप में दिखाई भी पड रहे हैं किन्तु वह जीत के रूप में परिणित नहीं हो सके. नया पैटर्न दिमाग में जगह बना रहा है. हमारी पुरानी मान्यता को तोड़ रहा है. हमारी पुरानी सोच को बदलने के लिए मजबूर कर रहा है. राजनीतिक मान्यता में बदलाव हो रहा है. इसी बदलाव का विरोध हो रहा है और राज्य सरकार द्वारा दी जा रही सुविधाओं को मुफ्तखोरी की संज्ञा देकर उस पर चटखारे लेना इसी नए पैटर्न के विरोध के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है.
दिल्ली सरकार द्वारा दी जा रही सुविधाएँ बेहद मूलभूत हैं और प्रत्येक सरकार को इन क्षेत्रों में योगदान देना चाहिए. क्योंकि पूर्व से चली आ रही असमानता तभी दूर हो सकती है जब लोगों को मूलभूत सुविधाएँ समान रूप से मिलें. बल्कि उन्हें अधिक सुविधाएँ मिले जिनकी पीढियां इन सुविधाओं से वंचित रही हैं.
तमाम सरकारें मतदाताओं को प्रलोभन देती रही हैं. अपना जनाधार बढाने के लिए उन्होंने सरकारी खजाने को लुटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. कई सरकारें तो ऐन चुनाव के वक्त कई तरह की योजनाओं की घोषणा करती रही हैं और जनता ने उनका लाभ भी लिया है. पर वे मुख्य जनाधार नहीं हुआ करती थीं. मुख्य आधार तो सम्प्रदाय, जाति, क्षेत्र या अन्य मुद्दे होते थे. लोग उंगलियाँ पर गिनते थे कि किस सम्प्रदाय के कितने मतदाता किसे क्षेत्र में हैं और किसकी जीत संभावित है. तमाम ऐसे विश्लेषकों को इस बार के चुनाव में निराशा हाथ लगी है.
चुनाव परिणाम के ही दिन जब चुनाव परिणाम आया तो पूर्व से सत्तासीन पार्टी और जीत का सेहरा बांधे पार्टी प्रमुख ने जीत का श्रेय दिल्ली की जनता को तो दिया पर यह भी कहा कि आज मंगलवार है और उसने उस दिन की आस्था के साथ जुड़े एक देवता का नाम लेते हुए उसने जीत का श्रेय उस देवता को भी दिया. सच कहा जाए तो इस वक्तव्य ने यह प्रकट कर दिया कि वह भी जाति और साम्प्रदायिक राजनीति से कहीं न कहीं भयभीत है और खुद को उसी पैटर्न पर दिखाने की उसने कोशिश की . काम के आधार पर राजनीति के जो समर्थक हैं यह उन्हें आहत करता है. और इसीलिये यह कहने में कोई असहजता नहीं है कि आगामी चुनाव परिणाम इस पार्टी के लिए इतने आसान नहीं होंगे क्योंकि उसने अपना झुकाव उनके ही मोहरों की तरफ कर दिया है. उसने जिस रेखा को बढाया और जिसके आधार पर उसने चुनाव जीता उसके लिए अब पहले से कहीं अधिक संघर्ष की जरूरत होगी. यदि वह जनता को सहयोग करने के नये क्षेत्र तलाश करने और अधिक मूलभूत सुविधाओं को बढाने में सफल रहता है और उस पर जनता का समर्थन प्राप्त करने में सफल होता है तो ही भारत में काम और विकास की राजीनीति का अभ्युदय हो सकेगा.
हास्यस्पद तो यह लगता है कि जिन्हें अभी राज्य से सुविधाओं की दरकार है वे इन सुविधाओं को मुफ्तखोरी की संज्ञा दे रहे हैं. जबकि सभी सरकारें जनता को सुविधाएँ उपलब्ध कराने का प्रयास करती हैं और ऐसा करना राज्य का उत्तरदायित्व है जो संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों के रूप में वर्णित हैं. बल्कि अन्य सुविधाएँ जो संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों के रूप में वर्णित हैं उन सभी की मांग करने का हक जनता को है, और इस बात का गुमान किसी पार्टी को नहीं होना चाहिए कि केवल कुछ सुविधाएँ देने से उनके कर्तव्यों की इतिश्री हो गयी है. जब कोई राजनीतिक दल काम और विकास के आधार पर राजनीति करने का प्रयास करे तो जनता को सरकार तक उन मुद्दों को लाने में सहयोग करना चाहिए जो बिलकुल मूलभूत हैं और जिस पर सभी का विकास आधारित है.
आलेख:सुरेन्द्र कुमार पटेल
आलेख:सुरेन्द्र कुमार पटेल
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