शनिवार, फ़रवरी 29, 2020

आभासी दुनिया:सुरेन्द्र कुमार पटेल



उस पवि़त्र दिवस को याद कर आज भी मस्तक विनम्रता से झुक जाता है। ईश्वरीय कृपा इस दुनिया में है या नहीं इसकी अवधारणा स्पष्ट न होने पर भी हृदय किसी अदृश्य, शाश्वत और सर्वोच्च शक्ति को याद कर कृतज्ञता के भाव से भर जाता है। उस एक दिवस ने मुझे जगत प्रसिद्व कर दिया। और तो और, जिस ‘‘सामाजिक‘‘ होने के लिए लोग न जाने किस-किसके दर ठोंकरे खाते रहते हैं घर बैठे ही मैं सामाजिक हो गया! सोशल मीडिया पर मेरा उस रोज खाता खुला था। उसके पहले तक मैं वैसे ही सर्व सभ्य समाज से अलग प्राणी समझाा जाता था जैसे आपके ही जान-पहचान में हो रहे शादी-ब्याह के कार्यक्रम में सभी को पूछा गया हो पर आपको जानबूझकर छोड़ दिया गया हो। सच कहूं तो उस रोज मेरा नया अवतार हुआ था। न जाने क्यों लोग उस रोज को हैप्पी नया अवतार नहीं मनाते! आपको विश्वास नहीं होगा, उस रोज से मैंने घर से रहा सही निकलना भी बन्द कर दिया। ऐसा क्यों? इसे आगे बताते हैं।
मैंने देखा, क्यों लोग इस प्लेटफाॅर्म को सोशलमीडिया कहते हैं। इस प्लेटफार्म में लोगों के व्यवहार का पूरा हिसाब-किताब रहता है। आपने कोई पोस्ट डाला, किस-किस ने लाइक किया, कमेंट किया इसका लेखा-जोखा रहता है। इसमें ऐसा नहीं होता कि व्यवहार देने वाले का नाम लिखने के लिए किसी और को बैठाना पड़े! बस क्या था, मैंने भी व्यवहार अदा करना सीख लिया। एक बार तो ऐसा हो गया। किसी मित्र ने अपने पिता के स्वर्गवासी होने की सूचना पोस्ट कर दी। मैंने देखा, उसने मेरे पिछले पोस्ट पर लाइक किया था, मैने भी ससम्मान उसके इस पोस्ट पर लाइक कर दिया। आपने भी देखा होगा, ऐसे पोस्टों पर भी लोगों के लाइक आ ही जाते हैं!

आपको उस आनन्द की अनुभूति बयां नहीं कर सकते जब पहली बार किसी ने फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजा था। परन्तु जैसा कि खाने-पीने के व्यवहार में होता है कोई खाने को बोले और आप लार टपकाते हाॅं कह दो तो लोग आपको जंगली, भूखा और असभ्य समझेंगे, ऐसा मानते हुए आप हाॅं नहीं कहते, भले मारे भूख के प्राण निकल रहे हों! वैसा ही कुछ फ्रंेड रिक्वेस्ट आने पर करना होता है। मैंने बाकायदा उसके प्रोफाइल को चेक किया, ठीक तरह से उसे जानते हुए भी कम से कम चार-पांच दिन पेंडिंग रखा। किसी अपने वरिष्ठ खाता धारक से ऐसा सीखा था कि दस-बीस फंेड रिक्वेस्ट पेंडिंग पड़ा रहना सम्मान की बात होती है।
और, जो-जो बाल्यकाल के जान-पहचान के थे, सभी को एक-एक कर खोजने का प्रयास करने लगा और इसमें काफी सफलता भी मिली। कई-कई लोगों से जान-पहचान हुई। और तो और इस खाते से घर बैठे विदेशी लोगों से मित्रता भी हो गई। हालांकि, मित्रता का और कोई लाभ उठाने की न तो मंशा थी और न वैसी जरूरत।
जबसे सोशलमीडिया में खाता खुला, मन को मानों पर लग गए। मन हमेशा सातवें आसमान में उड़ता रहता। कभी मूड आॅफ हुआ तो लिख दिया आज कुछ अच्छा नहीं लग रहा। हाल पूछने वालों का तांता लग जाता। ऐसे शुभचिंतकों की फौज पाकर खुद को धन्य ही समझता। दिन-दिन भर हो जाते अपने घर में बात नहीं होती परन्तु समुन्दर पार कोई मित्र बैठा हो और कुछ पूछा हो तो एक के बजाय चार-छः उत्तर भेज दिए जाते। राजनीति के शिक्षकों ने बच्चों को भूमण्डलीकरण का चाहे जो अर्थ बताया हो परन्तु सोशलमीडिया प्रेमियों को यदि यह समझा दिया जाए कि घर बैठे पूरी दुनिया से मिलने का जो अवसर सोशलमीडिया के माध्यम से मिलता है उसे भी भूमण्डलीकरण कहते हैं, तो वह इसके अर्थ को कभी न भूलें! तो अब तक आप समझ ही गए होंगे, पूरी दुनिया मुट्ठी में कैद हो चुकी थी।
मित्रता सूची जैसे-जैसे बढ़ती गई मन फूलकर कुप्पा होता गया। निठल्लों का स्वाभिमान जागृत करने का इससे आसान और कोई उपाय नहीं है। गाॅंव-देहात में अपनी पैठ साबित करने के लिए लोग न जाने क्या-क्या जुगत भिड़ाते हैं। किसी न किसी बहाने लोगों को खिलाने-पिलाने का जुगत करते हैं यह देखते हैं कि उसके आॅंगन में कितने लोगों ने भातभोज किया। इससे उनकी प्रतिष्ठा साबित होती है। स्वास्थ्य और शिक्षा विषय पर खर्च करने को कहेंगे तो बीसियों गरीबी दिखा दिए जाएं परन्तु भोग-भण्डारा के नाम पर बखारी खाली कर दें और चूॅं तक नहीं करेंगे! शक्ति परीक्षण में बहुमत जो साबित करना होता है। लेकिन सोशलमीडिया में इतना खर्च समेटने की जरूरत नहीं पड़ती। एक खाता खोलें और उसकी मित्रता सूची को अधिकतम क्षमता तक पहुंचा देना है बस! फिर जब कोई आपके जान-पहचान का व्यक्ति आपको अपनी मित्रता सूची में जोड़ना चाहेगा तो खुद ब खुद उसे पता लग जाएगा कि आपकी मित्रता सूची पूरी हो चुकी है! सोशलमीडिया पर आपकी असाधारण पकड़ देखकर वह दांतों तले उंगली दबाए बिना नहीं रहेगा।
इसी असाधारण महानता को प्राप्त करने के बाद मैं खुद को महान समझने लगा। लोग सामने मिलें तो चाहे आपको देखकर ही दूसरी ओर मुंह कर लें परन्तु सोशलमीडिया में वह आपको बहुत आदर देते हैं। आपके किसी पोस्ट पर चार-छः ऐसे ही कमेंट आ जाएं फिर देखिए उस रोज की आपकी गर्विल चाल! आपके कदम स्वयं ही शान से चलने लगते हैं। बस कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। उस आभासी दुनिया का नायक था मैं। उससे बाहर निकलॅंू तो कोई पहचानता तक न था। न तो वो अदब न वो दुआ-सलाम! सौ मैंने तय कर लिया कि इसी आभासी दुनिया में मगन रहना है। कम से कम यहां एक पहचान है। पहचान का प्रमाण है। रिकाॅर्ड है। बाहरी दुनिया में आपको लाखों पसन्द करते हों। आपकी दीर्घायु के लिए मन्नतें मांगते हों परन्तु उसका प्रमाण यहीं से दिया जाएगा। आपकी लोकप्रियता सोशलमीडिया पर आपके फाॅलोवर्स से आंकी जाएगी।
एक दिन मन में एक अलग ढंग का प्रश्न उभरा। हरेक इंसान मरने के लिए पैदा हुआ है। और इसीलिए हरेक इंसान में यह आम प्रश्न पैदा होता है कि मेरे मरने के बाद लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? यही प्रश्न मेरे मन में भी उभरा। हालांकि ऐसा संभव नहीं है कि मरकर इसे जांचा जा सकता है। इसका पहला कारण तो यह है कि मरने के बाद पुनः जीवन धारण संभव नहीं है और दूसरा यह कि यदि हम मरकर जीवन धारण कर भी लें तो मरे हुए स्थिति में कैसे देखेंगे कि लोग मेरे मरने पर कैसा सोचते हैं। और तीसरा यह कि यदि लोगों को पता हो कि मरकर जिया भी जा सकता है तो लोग वास्तविक विचार रखेंगे ही नहीं। परन्तु सोशलमीडिया के साथ ऐसा करना संभव है। तो मैंने लिखा- मैं कुछ दिनों बाद सोशलमीडिया छोड़ने वाला हॅूू! और मैंने देखा, मेरे हर पोस्ट पर कमेंट करने वाले कुछ आदतन साथियों के अलावा किसी ने इसे गंभीरता से नहीं लिया! मुझे लगा शायद लोग इसे मजाक समझते हों। उन्हें भरोसा ही न हो कि मैं सचमुच सोशलमीडिया छोड़ने वाला हॅू। मैंने सचमुच एक दिन अपना सोशलमीडिया एकाउन्ट डिएक्टीवेट कर दिया। उस रोज से हर रोज एक कुलबुली-सी होती, शायद कोई फोन कर कहेगा- आपने सोशलमीडिया क्यों छोंड़ दिया? पर हद हो गई हफता बीत गया, महीना बीत गया। सब अपने रोजमर्रा के काम में व्यस्त किसी ने पूछा तक नहीं। फिर एक दिन खुद ही पुनः अपने पुराने खाते को चालू कर लिया। इंतजार में था कि कोई पूछेगा- आपने सोशलमीडिया एकाउन्ट डिएक्टीवेट क्यों किया था। पर किसी ने न पूछा। अपने आॅंसू खूद ही पोछने पड़े। तब से इस आभासी दुनिया और आभासी दुनिया के मित्रों से भरोसा ही उठ गया है। दोस्ती अब भी है पर वैसा ही है जैसा कि एक लेखक ने अपने लेख में लिखा है- छल का धृतराष्ट्र जब आलिंगन करे तो पुतला ही आगे बढ़ाना चाहिए। मेरे आभासी मित्र कुछ ऐसे ही लगे। हालांकि मेरे मन को राहत है क्योंकि हाल ही में मेरे इस पैटर्न को एक अदद माननीय ने अपनाया है। उसने घोषणा की है वह सोशलमीडिया के खाते बंद करने का सोच रहे हैं। मेरा विश्वास है उनका अगला पैटर्न मेरे जैसा ही होगा!

-सुरेन्द्र कुमार पटेल

शुक्रवार, फ़रवरी 28, 2020

बदलाव की सोचिए:राम सहोदर पटेल


बदले की नहीं बदलाव की सोचिए।
क्षण भरके गुस्से से प्रेम भरा संबंध बिखर जाता है।
गुस्सा जब तक धीमा पड़ता है
तब तक संबंध सुधारने का वक़्त निकल जाता है।।

बुराई पराई देखने का नहीं,
बुरे व्यक्ति में अच्छाई खोजिए।
दूसरों की बुराई खोजने में,
स्वयं का अच्छापन चला जाता है।।

बकवास करने का नहीं,
काम करने की आदत डालिये।
बक-झक में सुकर्म का कौशल चला जाता है,
गलतियां करने की नहीं,
गलतियां दूर करने की सोचिए
क्षमा याचना मात्र से
दुष्प्रवृत्ति में सुधार आता है।।

ईर्ष्या, द्वेष, नफरत नहीं
प्रेम, मैत्री, सद्भाव सोचिए।
अनवरत निकटतम रहने से
सदवृत्ति निखर आता है।
अलग रहने की नहीं,
समूह में रहने की सोचिए,
सदा सहोदर भाव रखने से
मन का विकार निकल जाता है।।
-राम सहोदर पटेल, शिक्षक। 

सोमवार, फ़रवरी 17, 2020

राजनीति का नया पैटर्न या मुफ्तखोरी: सुरेन्द्र कुमार पटेल



जबसे दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम सामने आए हैं तब से मुफ्तखोरी जैसे विषय पर खूब चर्चा हो रही है. लग तो ऐसा रहा है कि दिल्ली की सरकार ने सभी को निकम्मा बना दिया है और अब दिल्ली की जनता को कोई काम ही नहीं करना पड़ेगा. तभी तो जी न्यूज़ के सुधीर चौधरी यह कहते भी नहीं चूकते कि दिल्ली की जनता आलसी है. आइए इसकी पड़ताल करते हैं लोग मुफ्तखोरी पर चटखारे लेकर बात क्यों कर रहे हैं!

यदि गौर करें  तो पाएंगे कि दिल्ली की  हालिया सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में ध्यान दिया है. जिसकी चर्चा सभी प्लेटफार्मों  पर होती  है. ऐसा नहीं है कि दिल्ली की सरकार ने प्राइवेट स्कूलों को बंद करवा दिया है. हाँ उसने प्राइवेट स्कूलों द्वारा उगाही जा रही मनमानी फीस पर नकेल कसने की कोशिश जरूर की है  और सरकारी स्कूलों को बेहतर स्थिति में लाने कि कोशिश की  है. इस मुद्दे पर आप स्वयं  को रखकर देखिये.  आप क्या चाहते हैं? और इस मुद्दे पर आप किन बिन्दुओं पर असहमत हैं. क्या निजी विद्यालयों द्वारा ली जा रही मनमानी फीस पर अंकुश लगाने के आप विरोधी हैं या सरकारी स्कूलों की स्थिति को बेहतर करने के विरोध में हैं आप?

इसी प्रकार मोहल्ला क्लीनिक उपलब्ध कराना ठीक है या  नहीं ? आप जानते ही हैं कि निजी चिकित्सालय लाभ के उद्देश्य से खोले जाते हैं. जहां जांच के नाम पर ही लोगों से बहुत सारे पैसे ऐंठ लिए जाते हैं. ऐसी स्थिति में यदि दिल्ली की सरकार ने मोहल्ला क्लिनिक उपलब्ध करवाया है तो इसे मुफ्तखोरी की संज्ञा नहीं दी जा सकती.

अब आते हैं बिजली और पानी पर. जैसा कि आप जानते ही होंगे यह छूट असीमित नहीं है. बिजली की कुछ सीमा तक खर्च पर और इसी तरह पानी की कुछ सीमा तक खर्च पर दिल्ली सरकार द्वारा रियायत दी गयी है. जाहिर है इस सीमा तक बिलकुल आम आदमी आता है. जिसे राज्य द्वारा कुछ सुविधाओं का उपभोग करने का हक़ है. वह भी जब बाजार में वस्तुएं खरीदता है तो उस पर टैक्स देता है और वह वे कार्य करता है जो कठोर  परिश्रम के काम होते हैं और जिनका पारिश्रमिक बहुत कम होता है.

अब आते हैं महिलाओं को बस किराये में दी जा रही छूट पर! महिलाओं की आबादी और उनके सार्वजनिक जीवन में भागीदारी का अनुपात देखेंगे तो पता लगेगा कि आजादी के इतने दिनों बाद भी उनकी भागीदारी का प्रतिशत बहुत कम है. ऐसे में वह घरों से बाहर निकल कर शिक्षा और रोजगार प्राप्त कर सकें इसके लिए किसी भी सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयासों की सराहना ही होनी चाहिये. यदि दिल्ली की सरकार ने बसों में सुरक्षा के प्रबंध किये और बस किराये में महिलाओं को राहत दी तो अन्य सरकारों को भी इसका अनुकरण करना चाहिए.
इसका अलावा उसने और क्या फ्री किये, मुझे नहीं मालुम.

अब आते हैं इस बात पर कि दिल्ली सरकार द्वारा दी  जा रही सुविधाओं पर इतना हो-हल्ला क्यों हो रहा है? इसका उत्तर यह है कि हमारी राजनीति में जिन आधारों पर चुनाव होते रहे हैं और सरकार बनती और बिगडती रही हैं उससे  यह अलग है. यह एक नया पैटर्न है. साम्प्रदायिक और राजनीति आधार पर चुनाव जीते जाते तो किसी को कोई आश्चर्य नहीं होता. इसकी कोशिश भी हुयी किन्तु वह पुराना पैटर्न दिल्ली में कामयाब नहीं हुआ. जब किसी नेता ने यह कहा कि बटन इतने जोर से दबाना कि करेंट ........... में लगे तो यह सांप्रदायिक आधार पर वोट  मांगने का  ब्रह्मास्त्र था जिसका भी उपयोग अंततः कर ही लिया गया. यह कहना भी ठीक नहीं है कि यह ब्रह्मास्त्र फेल हो गया. इसी ब्रहमास्त्र के कारण नतीजे आए और जो मत प्रतिशत के रूप में दिखाई भी पड रहे हैं किन्तु वह जीत के रूप में परिणित नहीं हो सके. नया पैटर्न दिमाग में जगह बना रहा है. हमारी पुरानी  मान्यता को तोड़ रहा है. हमारी पुरानी सोच को बदलने के लिए मजबूर कर रहा है. राजनीतिक मान्यता में बदलाव हो रहा है. इसी बदलाव का विरोध हो रहा है और राज्य सरकार द्वारा दी जा रही सुविधाओं को मुफ्तखोरी की संज्ञा देकर उस पर चटखारे लेना इसी नए पैटर्न के विरोध के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है.

दिल्ली सरकार द्वारा दी जा रही सुविधाएँ बेहद मूलभूत हैं और प्रत्येक सरकार को इन क्षेत्रों में योगदान देना चाहिए. क्योंकि पूर्व से चली आ रही असमानता तभी दूर हो सकती है जब लोगों को मूलभूत सुविधाएँ समान रूप से मिलें. बल्कि उन्हें अधिक सुविधाएँ मिले जिनकी पीढियां इन सुविधाओं से वंचित रही हैं. 

तमाम सरकारें मतदाताओं को प्रलोभन देती रही हैं. अपना जनाधार बढाने के लिए उन्होंने सरकारी खजाने को लुटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. कई सरकारें तो ऐन चुनाव के वक्त कई तरह की योजनाओं की घोषणा करती रही हैं और  जनता ने उनका लाभ भी लिया है. पर वे मुख्य जनाधार  नहीं हुआ करती थीं. मुख्य आधार तो सम्प्रदाय, जाति, क्षेत्र या अन्य मुद्दे होते थे. लोग उंगलियाँ पर गिनते थे कि किस सम्प्रदाय के कितने मतदाता किसे क्षेत्र में हैं और किसकी  जीत संभावित है. तमाम ऐसे विश्लेषकों को इस बार के चुनाव में निराशा हाथ लगी है.

चुनाव परिणाम के ही दिन जब चुनाव परिणाम आया तो पूर्व से सत्तासीन पार्टी और जीत का सेहरा बांधे पार्टी प्रमुख ने जीत का श्रेय दिल्ली की जनता को तो दिया पर यह भी कहा कि आज मंगलवार है और उसने उस दिन की आस्था के साथ जुड़े एक देवता का नाम लेते हुए उसने जीत का श्रेय उस देवता को भी   दिया. सच कहा जाए तो इस वक्तव्य ने यह प्रकट कर दिया कि वह भी जाति और साम्प्रदायिक राजनीति से कहीं न कहीं भयभीत है और खुद को उसी पैटर्न पर दिखाने की उसने कोशिश की . काम के आधार पर राजनीति के जो समर्थक हैं यह उन्हें आहत करता है. और इसीलिये यह कहने में कोई असहजता नहीं है कि आगामी चुनाव परिणाम इस पार्टी के लिए इतने आसान नहीं होंगे क्योंकि उसने अपना झुकाव उनके ही मोहरों की तरफ कर दिया है. उसने जिस रेखा को बढाया और जिसके आधार पर उसने चुनाव जीता उसके लिए अब पहले से कहीं अधिक संघर्ष की जरूरत होगी. यदि वह जनता को सहयोग करने के नये क्षेत्र तलाश  करने और अधिक मूलभूत सुविधाओं को बढाने में सफल रहता है और उस पर जनता का समर्थन प्राप्त करने में सफल होता है तो ही भारत में काम और विकास की राजीनीति का अभ्युदय हो सकेगा.

हास्यस्पद तो यह लगता है कि जिन्हें अभी राज्य से सुविधाओं की दरकार है वे इन सुविधाओं को मुफ्तखोरी की संज्ञा दे रहे हैं. जबकि सभी सरकारें जनता को सुविधाएँ उपलब्ध कराने का प्रयास करती हैं और  ऐसा करना राज्य का उत्तरदायित्व है जो संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों के रूप में वर्णित हैं. बल्कि अन्य सुविधाएँ जो संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों के रूप में वर्णित हैं उन सभी की मांग करने का हक जनता को है, और इस बात का गुमान किसी पार्टी को नहीं होना चाहिए कि केवल कुछ सुविधाएँ देने से उनके कर्तव्यों की इतिश्री हो गयी है. जब कोई राजनीतिक दल काम और विकास के आधार पर राजनीति करने का प्रयास करे तो जनता को  सरकार तक उन मुद्दों को लाने में सहयोग करना चाहिए जो बिलकुल मूलभूत हैं और जिस पर सभी का विकास आधारित है.
आलेख:सुरेन्द्र कुमार पटेल